21 सितंबर 2011

ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश' (1767-1846) خواجہ حیدر علی آتش Khwaja Haider Ali 'Aatish'
















ऐसी वहशत नहीं दिल को कि संभल जाऊँगा
सूरत-ए-पैरहन-ए-तंग निकल जाऊँगा

चार दिन ज़ीस्त के गुज़रेंगे तअस्सुफ़ में मुझे
हाले-दिल पर कफ़े-अफ़सोस मैं मल जाऊँगा

शोला रूओं को दिखलाओ न मुझे ऐ आँखों
मोम-सा नर्म मेरा दिल है, पिघल जाऊँगा

हाले-पीरी किसे मालूम जवानी में था
क्या समझता था,मैं दो दिन में बदल जाऊँगा

शे'र ढलते हैं मेरी फ़िक्र से आज ऐ ' आतिश '
मर के कल गोर के सांचे में मैं ढल जाऊँगा

वहशत-उन्माद,पागलपन। सूरत-ए-पैरहन-ए-तंग- तंग कपड़े की तरह ।ज़ीस्त- जीवन। तअस्सुफ़ - पश्चाताप। हाले-दिल- हृदय अथवा मन की दशा। कफ़े-अफ़सोस- दुःख का हाथ। शोला-रू- आग की भांति लाल मुंह वाला। हाले-पीरी- वृद्धावस्था की दशा। फ़िक्र- चिंतन ।गोर- क़ब्र।


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