01 सितंबर 2011

मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ाँ 'ग़ालिब'(1797-1869) مرزا اسد اللہ بیگ خان غؔالب Mirza 'Ghalib'






















रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

कहता है कौन नाल-ए-बुलबुल को बेअसर
परदे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए

पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहले-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए

करने गए थे उससे,तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए

इस रंग से उठाई कल उसने 'असद' की लाश
दुश्मन भी जिसको देख के ग़मनाक हो गए

बेबाक-निर्लज्ज । पाक-पवित्र । नाल-ए-बुलबुल-बुलबुल की करुण पुकार,आर्त्तनाद । गुल-फूल । चाक होना -फटना,दरार पड़ना ।वजूद-ओ-अदम- अस्तित्व एवं अनस्तित्व । अहले-शौक़-प्रेमी । ख़स-ओ-ख़ाशाक-कूड़ा-करकट । तग़ाफ़ुल-उपेक्षा । गिला-उलाहना । ख़ाक-मिटटी ।ख़ाक हो जाना - मिट जाना । ग़मनाक-दु:खी ।

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