01 सितंबर 2011

मीर तक़ी 'मीर' (1722-1810) میر تقی مؔیر Meer Taqi 'Meer'



















इधर से अब्र उठ कर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है

मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानिहा सा हो गया है

मुक़ामिरख़ाना-ए-आफ़ाक़ वह है
कि जो आया है याँ कुछ खो गया है

सरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है

अब्र-बादल। मसाइब-समस्याएं,मुश्किलें ।सानिहा-दुर्घटना ।मुक़ामिरखाना-ए-आफ़ाक़ - संसार का जुआघर ।टुक-थोड़ा ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें