21 सितंबर 2012

मिर्ज़ा ज़ाकिर हुसैन कज़लबाश 'साक़िब लखनवी' (1869-1949) ثؔاقب لکھنوی Saqib Lakhnavi

       
     






















हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
सुनने  वाले  रात  कटने  की दुआ देने लगे

बाग़बां  ने  आग दी जब आशियाने को मिरे
जिन  पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे

मुट्ठियों में ख़ाक लेकर दोस्त आये वक़्ते-दफ़्न
ज़िंदगी भर की मुहब्बत का सिला देने लगे

आईना  हो जाए मेरा  इश्क़ उनके हुस्न का
क्या मज़ा हो दर्द अगर ख़ुद ही दवा देने लगे

सीना-ए-सोज़ां में 'साक़िब' घुट रहा है वह धुआं
 उफ़  करूं तो आग की  दुनिया हवा देने लगे

हिज्र की शब्= वियोग की रात । नाला-ए-दिल= हृदय का आर्तनाद। सदा= पुकारना,आवाज़ देना।बाग़बां= माली । आशियाना= नीड़।  तकिया था= जिन पर बना था,सहारा। ख़ाक= धूल।वक़्ते-दफ़्न= मृत को मिट्टी में गाड़ते समय । सिला= बदला।  हुस्न= सौंदर्य।  सीना-ए-सोज़ां =जलती हुई छाती,दुखी ह्रदय।