21 सितंबर 2011

ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश' (1767-1846) خواجہ حیدر علی آتش Khwaja Haider Ali 'Aatish'
















ऐसी वहशत नहीं दिल को कि संभल जाऊँगा
सूरत-ए-पैरहन-ए-तंग निकल जाऊँगा

चार दिन ज़ीस्त के गुज़रेंगे तअस्सुफ़ में मुझे
हाले-दिल पर कफ़े-अफ़सोस मैं मल जाऊँगा

शोला रूओं को दिखलाओ न मुझे ऐ आँखों
मोम-सा नर्म मेरा दिल है, पिघल जाऊँगा

हाले-पीरी किसे मालूम जवानी में था
क्या समझता था,मैं दो दिन में बदल जाऊँगा

शे'र ढलते हैं मेरी फ़िक्र से आज ऐ ' आतिश '
मर के कल गोर के सांचे में मैं ढल जाऊँगा

वहशत-उन्माद,पागलपन। सूरत-ए-पैरहन-ए-तंग- तंग कपड़े की तरह ।ज़ीस्त- जीवन। तअस्सुफ़ - पश्चाताप। हाले-दिल- हृदय अथवा मन की दशा। कफ़े-अफ़सोस- दुःख का हाथ। शोला-रू- आग की भांति लाल मुंह वाला। हाले-पीरी- वृद्धावस्था की दशा। फ़िक्र- चिंतन ।गोर- क़ब्र।


13 सितंबर 2011

नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ 'दाग़ देहलवी' (1831-1905) نواب مرزا خاں دؔاغ دہلوی Nawab Mirza Khan 'Daagh Dehalvi'




















ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा

तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परीशां रहा करती है
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा

आरज़ू ही न रही सुबहे-वतन की मुझ को
शामे-ग़ुरबत है अजब वक़्त सुहाना मेरा

काबा-ओ-दैर में या चश्म-ओ-दिले-आशिक़ में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा

बज़्मे-दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा

'दाग़' को यूं वो मिटाते हैं, यह फ़रमाते हैं
तू बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा

ज़ुल्फ़-केश। परीशां-बिखरा हुआ। आरज़ू-कामना। सुबहे-वतन- देश अथवा अपनी जगह की भोर। शामे-ग़ुरबत-परदेस अथवा परायी जगह की शाम। अजब-आश्चर्यजनक। काबा- मुस्लिम मतावलम्बियों का पवित्र स्थल। दैर- मंदिर। चश्म-ओ-दिले-आशिक़-प्रेमी की आँख और दिल। बज़्मे-दुश्मन-शत्रु की सभा। क़यामत-प्रलय,विपत्ति।

12 सितंबर 2011

वली मोहम्मद 'नज़ीर अकबराबादी' (1735-1830) ولی محمد نؔظیراکبرآبادی Wali Mohammed Nazeer Akbarabadi





















दूर से आये थे साक़ी सुन के मयख़ाने को हम
बस तरसते ही चले अफ़सोस ! पैमाने को हम

मय भी है,मीना भी है,साग़र भी है साक़ी नहीं
दिल में आता है लगा दें आग मयख़ाने को हम

हम को फंसना था क़फ़स में,क्या गिला सय्याद का
बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम

बाग़ में लगता नहीं,सहरा से घबड़ाता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठे ऐसे दीवाने को हम

क्या हुई तक़सीर हम से , तू बता दे ऐ 'नज़ीर'
ताकि शादी मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम

साक़ी-मदिरा पिलाने वाला । मयख़ाने-मदिरालय । पैमाना- मदिरा पात्र । मय- मदिरा। मीना- सुराही ।साग़र- प्याला । क़फ़स- पिंजड़ा,कारागार। सय्याद- शिकारी ।आब और दाना- जल एवं अन्न ।सहरा- मरूस्थल ।तक़सीर-भूल ।शादी- हर्ष,प्रसन्नता ।मर्ग- मृत्यु ।

04 सितंबर 2011

रासिख़ अज़ीमाबादी (1162-1240) رؔاسخ عظیم آبادی Raasikh Azeemabadi





















कोहकन न कोह में न क़ैस था बन में शरीक
हो सका कोई न मेरा इश्क़ के फ़न में शरीक

कर दिया पत्थर को मोम,आहन को आब इक आन में
है असर नालों का मेरे संग-ओ-आहन में शरीक

रोशनी पकड़े चिराग़ ख़ान-ए-माशूक़ कब
ख़ुद आशिक़ जब तलक होवे न रौग़न में शरीक

कुफ़्र-ओ-दीं को एक ही समझो हक़ीक़त में, कि है
रिश्त-ए-तस्बीह ज़ुन्नारे-बिरहमन में शरीक

दोस्त है तन्हा न मातमदार 'रासिख़' के होते
हो गए दुश्मन भी आ कर उसके शेवन में शरीक

कोहकन-पहाड़ काटने वाला, शीरीं के प्रसिद्ध प्रेमी फरहाद की उपाधि जिसने शीरीं के कहने पर पहाड़ काटते हुए अपने प्राणों की बलि दे दी । कोह-पहाड़ । क़ैस -लैला के प्रेमी मजनूँ का वास्तविक नाम। शरीक-साझेदार। फ़न- कला । आहन-लोहा। आब- पानी। नालों- आर्तनाद,रुदन। संग- पत्थर। ख़ान-ए-माशूक़- प्रेमिका का घर। आशिक़- प्रेमी। रौग़न- तेल। कुफ़्र-ओ-दीं- इस्लाम में अनास्था एवं आस्था। रिश्त-ए-तस्बीह - जपने की माला का संबंध। ज़ुन्नारे-बिरहमन - ब्राह्मण का जनेऊ। तन्हा- अकेला। मातमदार- दुखी,शोकग्रस्त। शेवन- विलाप,रुदन।


03 सितंबर 2011

ख़्वाजा मीर 'दर्द' (1720-1785) خواجہ میر دؔرد Khwaja Meer 'Dard'





















जग में आ कर इधर-उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा

जान से हो गए बदन ख़ाली
जिस तरफ़ तूने आँख भर देखा

नाला,फ़रियाद,आह और ज़ारी
आप से हो सका सो कर देखा

उन लबों ने न की मसीहाई
हम ने सौ-सौ तरह से मर देखा

ज़ूद आशिक़ मिज़ाज है कोई
दर्द को क़िस्सा मुख़्तसर देखा

नाला,फ़रियाद-रोना,विनती। ज़ारी - रोना पीटना । लब- होंठ। मसीहाई -उपचार। ज़ूद आशिक़ -तुरंत किसी को चाह लेने वाला। मुख़्तसर - संक्षिप्त ।

02 सितंबर 2011

मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी ' सौदा ' (1714-1781) مرزا محمد رفیع سؔودا Mirza Muhammad Rafi 'Sauda'























दिल ! मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
ज्यों अश्क फिर ज़मीं से उठाया न जाएगा

रुख़सत है बाग़बां कि टुक इक देख लें चमन
जाते हैं वां, जहां से फिर आया न जाएगा

तेग़े-जफ़ा-ए-यार से दिल ! सर न फेरियो
फिर मुंह वफ़ा को हम से दिखाया न जाएगा

काबा अगरचे टूटा तो क्या जा-ए-ग़म है शेख़
कुछ क़स्रे-दिल नहीं कि बनाया न जाएगा

ज़ालिम मैं कह रहा था कि तू इस ख़ू से दरगुज़र
'सौदा' का क़त्ल है यह, छुपाया न जाएगा

ज्यों अश्क - आंसू की तरह। ज़मीं -धरती । रुख़सत - विदा। बाग़बां - माली । चमन-उद्यान,वाटिका। वां - वहाँ। तेग़े-ज़फ़ा-ए-यार- प्रेमिका अथवा मित्र की अत्याचार रुपी तलवार। वफ़ा - प्रेम । अगरचे- यदि। जा-ए-ग़म - दुखी होने का कारण । क़स्रे-दिल -ह्रदय रुपी भवन । ख़ू- स्वभाव । दरगुज़र-अनदेखा करना,परे रहना।

01 सितंबर 2011

मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ाँ 'ग़ालिब'(1797-1869) مرزا اسد اللہ بیگ خان غؔالب Mirza 'Ghalib'






















रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

कहता है कौन नाल-ए-बुलबुल को बेअसर
परदे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए

पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहले-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए

करने गए थे उससे,तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए

इस रंग से उठाई कल उसने 'असद' की लाश
दुश्मन भी जिसको देख के ग़मनाक हो गए

बेबाक-निर्लज्ज । पाक-पवित्र । नाल-ए-बुलबुल-बुलबुल की करुण पुकार,आर्त्तनाद । गुल-फूल । चाक होना -फटना,दरार पड़ना ।वजूद-ओ-अदम- अस्तित्व एवं अनस्तित्व । अहले-शौक़-प्रेमी । ख़स-ओ-ख़ाशाक-कूड़ा-करकट । तग़ाफ़ुल-उपेक्षा । गिला-उलाहना । ख़ाक-मिटटी ।ख़ाक हो जाना - मिट जाना । ग़मनाक-दु:खी ।

मीर तक़ी 'मीर' (1722-1810) میر تقی مؔیر Meer Taqi 'Meer'



















इधर से अब्र उठ कर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है

मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानिहा सा हो गया है

मुक़ामिरख़ाना-ए-आफ़ाक़ वह है
कि जो आया है याँ कुछ खो गया है

सरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है

अब्र-बादल। मसाइब-समस्याएं,मुश्किलें ।सानिहा-दुर्घटना ।मुक़ामिरखाना-ए-आफ़ाक़ - संसार का जुआघर ।टुक-थोड़ा ।