ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परीशां रहा करती है
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा
आरज़ू ही न रही सुबहे-वतन की मुझ को
शामे-ग़ुरबत है अजब वक़्त सुहाना मेरा
काबा-ओ-दैर में या चश्म-ओ-दिले-आशिक़ में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा
बज़्मे-दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा
'दाग़' को यूं वो मिटाते हैं, यह फ़रमाते हैं
तू बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा
ज़ुल्फ़-केश। परीशां-बिखरा हुआ। आरज़ू-कामना। सुबहे-वतन- देश अथवा अपनी जगह की भोर। शामे-ग़ुरबत-परदेस अथवा परायी जगह की शाम। अजब-आश्चर्यजनक। काबा- मुस्लिम मतावलम्बियों का पवित्र स्थल। दैर- मंदिर। चश्म-ओ-दिले-आशिक़-प्रेमी की आँख और दिल। बज़्मे-दुश्मन-शत्रु की सभा। क़यामत-प्रलय,विपत्ति।
दाग साहेब की ग़ज़ल पढ़वाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंadab ki khidmat hai aapka yih blog...aabhaar
जवाब देंहटाएंआप बंधुओं का हार्दिक धन्यवाद !
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