04 सितंबर 2011

रासिख़ अज़ीमाबादी (1162-1240) رؔاسخ عظیم آبادی Raasikh Azeemabadi





















कोहकन न कोह में न क़ैस था बन में शरीक
हो सका कोई न मेरा इश्क़ के फ़न में शरीक

कर दिया पत्थर को मोम,आहन को आब इक आन में
है असर नालों का मेरे संग-ओ-आहन में शरीक

रोशनी पकड़े चिराग़ ख़ान-ए-माशूक़ कब
ख़ुद आशिक़ जब तलक होवे न रौग़न में शरीक

कुफ़्र-ओ-दीं को एक ही समझो हक़ीक़त में, कि है
रिश्त-ए-तस्बीह ज़ुन्नारे-बिरहमन में शरीक

दोस्त है तन्हा न मातमदार 'रासिख़' के होते
हो गए दुश्मन भी आ कर उसके शेवन में शरीक

कोहकन-पहाड़ काटने वाला, शीरीं के प्रसिद्ध प्रेमी फरहाद की उपाधि जिसने शीरीं के कहने पर पहाड़ काटते हुए अपने प्राणों की बलि दे दी । कोह-पहाड़ । क़ैस -लैला के प्रेमी मजनूँ का वास्तविक नाम। शरीक-साझेदार। फ़न- कला । आहन-लोहा। आब- पानी। नालों- आर्तनाद,रुदन। संग- पत्थर। ख़ान-ए-माशूक़- प्रेमिका का घर। आशिक़- प्रेमी। रौग़न- तेल। कुफ़्र-ओ-दीं- इस्लाम में अनास्था एवं आस्था। रिश्त-ए-तस्बीह - जपने की माला का संबंध। ज़ुन्नारे-बिरहमन - ब्राह्मण का जनेऊ। तन्हा- अकेला। मातमदार- दुखी,शोकग्रस्त। शेवन- विलाप,रुदन।


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